जब से मिले हो तुम
जब से मिले हो तुम
मैं खोई रहती हूँ
कुछ अनकहे और
उलझे से कुछ
सवालों के घेरे में
जिनमें उलझना तो है आसान
लेकिन जिन्हें सुलझाना है
बहुत ही कठिन
आखिर तुम्हारी इन आँखों कि
चमक ने ही तो
जन्म दिये हैं
ना जाने कितने ही सवालों को
क्या है वास्तव में
तुम्हारी आँखों में
जो दिखती तो हैं सागर सी विशाल
लेकिन एक नदी सी
ठहरी हुई चमक बिजली सी
काली घटा सी कभी
बरसने को रहती हैं आतुर
डूब जाना चाहती हूँ

तुम्हारी इन झील सी
शांत और गहरी आँखों में
क्योंकि अब इनमें डूबकर ही
ढूँढ पाऊँ अपने सवालों के जवाब
जो बहुत कठिन तो हैं
लेकिन ये सवाल
तुम्हारी आँखों से शुरू
और उनपर ही
खत्म हो जाते हैं।
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